वाराणसी/भदैनी मिरर।भारतीय व्रत-पर्व-उत्सव की अटूट श्रृंखला पर नजर डालें तो एक उल्लेखनीय तथ्य का रहस्योद्घाटन होता है कि भगवान सूर्य को समर्पित तथा कठिन व्रत के साथ-साथ उत्सवी रंगीनियों से जुड़ा पुरबिया पर्व डाला छठ ही एकमात्र ऐसा पंच दिवसीय पर्वोत्सव है। जो शास्त्रीय कर्मकांडों से पूरी तरह मुक्त व पौराणिक आडम्बरों से बरी लोकचरीय त्योहार है। यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि पांच दिनों की इस पर्व श्रृंखला ही एकमात्र ऐसी साधना व आराधना है जिसमें किसी पुरोहित कि उपस्थिति अनिवार्य नहीं है। उत्सव की शुरुआत नहाय-खाय की पहली रस्म के आगे खरना आदि रस्मों के संग होती है और समापन होता है, पहले दिन अस्ताचलगामी व दूसरे दिन उदीयमान सूर्य को प्रातः कालीन अर्घ्यपण के साथ। मजे की बात यह है कि रटे-रटाये पाठ की तरह यह सारी रस्में खुद व्रती श्रद्धालुओं द्वारा ही पुराई जाती है। मंत्रोच्चार से लेकर छठ महिमा के गीतों के गायन तक महिलाओं की ही भागीदारी पायी जाती है। यही वजह है कि काशी में दशाश्वमेध घाट पर सूर्य को अर्घ्यदान कर रही कोई अभिजातीय महिला हो या बक्सर बिहार के सुदूरवर्ती गांव सेमरिया के किसी पोखर में जलदान कर रही महिला श्रद्धालु दोनों के ही रस्मीय विधानों में राई-रत्ती का अंतर नहीं पाया जाता।