क्या झारखण्ड चुनावों से गायब मोबलीचिंग की घटनाओं पर तारिक आज़मी की मोरबतियां - चार दिन चर्चा उठेंगी डेमोक्रेसी ।


नवीन चोरे की एक कविता ने काफी चर्चा इकट्टा किया था। कविता मोब लीचिंग पर थी जिसका शीर्षक था “एक सड़क पर खून है।” मोब लीचिंग पर एटनामी के तौर पर लिखी इस कविता को नवीन चोरे ने जिस आलीशान तरीके से पढ़ा था वह भी काबिले गौर है। आज हमारा मकसद कही से कविता की सिर्फ तारीफ के पुल बांधना नही है बल्कि कुछ और है। इस कविता में एक पंक्ति थी कि “चार दिन चर्चा उठेगी डेमोक्रेसी लायेगे, पांचवे दिन भूल के सब काम पर लग जायेगे।” आज के मौजूदा हालत में अगर देखे तो झारखण्ड में हुई मोब लीचिंग्स की घटनाओं पर एक बढ़िया शब्द ये हो सकता है। जहा एक तरफ चुनाव हो रहे है और सियासी सरगर्मियों के बीच मौसम की सर्दी गुम हो गई है। मगर इस बीच सियासत में मोब लीचिंग गायब है।झारखंड में पांच चरणों में होने वाले विधानसभा के चुनावों के  प्रचार के शोर में वो क्रंदन दब चुकी है जो अपनों के खोने का ग़म ज़ाहिर भी नहीं कर सकता, और दबा भी नहीं सकता। घने जंगलों और मिली-जुली संस्कृति के लिए अपनी पहचान रखने वाला ये राज्य अब उन्मादी भीड़ की हिंसा के लिए बदनाम हो रहा है। सामीजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को अफ़सोस है कि पिछले पांच वर्षों में मॉब लिंचिंग यानी भीड़ के हाथों पीट-पीटकर जान लेने की 11 घटनाएं घट चुकीं हैं। इनमें कई लोगों को सरेआम पीट-पीटकर मौत के घाट उतार दिया गया।कहीं गौ तस्करी या गौ हत्या के नाम पर तो कहीं सोशल मीडिया के ज़रिए फैल रहीं अफवाहों की वजह से। मगर किसी भी राजनीतिक दल ने इसे अपना चुनावी मुद्दा नहीं बनाया है। राजनीतिक दल अब भी बुनियादी मुद्दों से दूर सिर्फ़ अपने नेताओं के पलायन को रोकने और दूसरे दलों से अपने दल में नेताओं को शामिल करने की होड़ में लगे हुए हैं। कहीं हमलावर भीड़ को मिले राजनीतिक संरक्षण पर बहस हुई तो कहीं पीड़ितों पर ही आपराधिक मामलों को लादे जाने को लेकर भय का माहौल बना।यूं तो झारखण्ड में रिपोर्ट किये गए सभी मामले गंभीर हैं और उन पर काफ़ी बहस भी हुई है, मगर बात वही आकर रुक जाती है कि चार दिन चर्चा उठेगी डेमोक्रेसी लायेगे और पांचवे दिन भूल के सब काम पर लग जायेगे। इस दौरान अगर सभी घटनाओ को देखे तो वह गंभीर है मगर गुमला जिले के डुमरी प्रखंड के जुर्मु गांव के बारे में कम ही लोग जानते हैं जहां आदिवासी ईसाई प्रकाश लकड़ा की पास के ही जैरागी गांव की उन्मादी भीड़ ने पीट-पीटकर हत्या कर डाली।इस घटना में जुर्मु गांव के तीन लोग भी घायल हुए थे। मगर वो प्रकाश की तरह बदक़िस्मत नहीं थे। वे बुरी तरह घायल तो हुए मगर जिंदा हैं, आप बीती और उस वारदात का आंखों देखा हाल बताने के लिए। इन्हीं में से एक हैं जनुवारिस मिंज। बेरहम भीड़ की पिटाई से बुरी तरह घायल हुए मिंज की ज़िंदगी अब पहले जैसी नहीं रही। शरीर पर लगी चोटों ने उन्हें कमज़ोर कर दिया है। अब वो ना देर तक खड़े हो सकते हैं ना ही खेत में देर तक काम कर सकते हैं। पिटाई में उनकी कई हड्डियां टूटी थीं। उन्हें जबरन पेशाब भी पिलाई गई थी। ये घटना बहुत पुरानी नहीं है। इसी साल अप्रैल महीने की है इसलिए जुर्मु के आदिवासी ईसाइयों के दिल, जिस्म और रूह के घाव अब भी ताज़ा ही हैं।प्रकाश लकड़ा की पत्नी जेरेमिना अकेली हो गईं हैं क्योंकि पिता की मौत के बाद उनके बच्चे (बेटा और बेटी) गांव छोड़कर चले गए हैं। वो डरे हुए थे। जनुवारिस मिंज और घटना में घायल दो और ग्रामीण अब भी यहीं रहते हैं। मगर अब बात पहले जैसी नहीं है क्योंकि पूरे गांव में दहशत है और लोग रात भर पहरे देते हैं। मिंज पूरी घटना के भुक्तभोगी भी हैं और चश्मदीद भी। इसलिए वो और उनके साथ घायल हुए दोनों ग्रामीण डरे हुए हैं। मिंज बताते हैं की अब उन्हें मामला वापस लेने के लिए धमकियां मिल रहीं हैं।यही नही अगर दूसरी तरफ देखे तो सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि जो भीड़ की हिंसा का शिकार बने, पुलिस उन पर ही मामले दर्ज करके उन्हें ही परेशान कर रही है। सामाजिक कार्यकर्ता सिराज दत्ता ने झारखंड में हुई मॉब लिंचिंग की घटनाओं का अध्ययन किया है। वो कहते हैं कि ज़्यादातर मामलों में पाया गया कि पीड़ितों पर ही मामले भी दर्ज किये गए। ख़ासकर तौर पर गौ हत्या के मामले। ऐसे में इंसाफ़ के लिए उनकी राह और भी मुश्किल हो गई है। सिराज दत्ता पूछते हैं, “वो अपने ऊपर हुए हमलों का इंसाफ़ मांगें या ख़ुद को निर्दोष साबित करने में ही रह जाएं?”अब देखना होगा कि झारखण्ड के सियासत में यह मोबलीचिन अपना असर कहा तक छोडती है और छोडती भी है या फिर नही। वो सड़के अथवा खेत जहा मोबलीचिन की घटनाएं हुई है भले ही अपने मिटटी से आंसू बहाकर आज भी उदास है मगर ख़ामोशी उनकी भी बहुत कुछ कहने को बेताब है। मगर बात फिर वही आकर अटक जाती है कि चर्चाओं का वह चार दिन खत्म हो चूका है। करोडो के न्यूज़ रूम में बैठ कर जेएनयु के छात्रो को बुढा और दहशतगर्द करार देने को बेताब एंकर्स इस मुद्दे पर खामोश है। और खामोश हो भी क्यों न, चार दिन तो बीत चुके है। मगर इस चार दिन में भी उनके लब इस मुद्दे पर बहस को नही खुले थे। अब देखना होगा कि क्या कोई सियासी पार्टी इस मुद्दे पर अपना लब खोलती है। क्या उनके लबो को आज़ादी मिलती है। या फिर जुबां खामोश है और लब आज़ाद है तेरे के तरह की तरह इस मुद्दे पर ख़ामोशी से ही पूरा चुनाव बीत जायेगा। शायद जवाब अभी बाकी है।









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