उत्तम और श्रद्धा पूर्वक इस कथा को जानने और पढ़ने वाले सज्जन व्यक्ति को सर्पों का भय नहीं रहेगा...

उत्तम और श्रद्धापूर्वक इस कथा को पढ़ने वाले सज्जनों को कभी सांपो का भय नहीं रहेगा।   पितृदोष निवारण के लिए भी यह कथा उत्तम है ।। 

महाभारत - कथा ६ 

कथा पांच के अंत तक हमने पढ़ा की नागराज वासुकी ने अपनी बहन से विनती की, की वह अपने पुत्र आस्तीक को नागवंश की रक्षा के लिए सज्ज करें ।। 

उग्रश्रवा जी आनंद मग्न होकर कथा सुनाते जा रहे थे । लेकिन श्रोताओं का उत्साह सप्तम आकाश पर था ।। वे कोतूहल वश बीच में ही बोल पड़े .

" महाराज जी ! तक्षक की तो इंद्र ने रक्षा कर ली, लेकिन क्या वासुकी की रक्षा हो पाई ? और यह आस्तीक कौन है ? इन्हे इतनी शक्ति किस प्रकार प्राप्त हुई ? की ये जनमेजय जैसे प्रतापी राजा का सर्पयज्ञ रोकने में समर्थ हो गए ?

उग्रश्रवा जी ने कहा :- साधुओं ! यदि आस्तीक नही होते, तो इंद्र द्वारा संरक्षित तक्षक की भी रक्षा नही हो पाती ।। आस्तीक ने न केवल वासुकी की, बल्कि तक्षक के प्राणों की भी रक्षा की ...

वह किस प्रकार महाराज ! आप विस्तार से हमे पूरी कथा सुनाएं, और हमारे मन की जिज्ञासा को तृप्त कीजिए।  

उग्रश्रवा जी ने कथा को आगे बढ़ाया ...

जरत्कारु नाम के एक ऋषि हुए करते थे ।। उन्होंने अपने शरीर को तपस्या के माध्यम से जीर्ण शीर्ण और  क्षीण बना लिया, इस कारण उनका नाम जरत्कारु पड़ा ।। 

दूसरी ओर नागराज वासुकी की बहन भी बड़ी तपस्विनी थी ।। उन्होंने भी अपने शरीर को जीर्ण शीर्ण क्षीण बनाया । इसी कारण उनका नाम भी जरत्कारु ही पड़ा ।। इनका मूल नाम मनसा देवी था ।।  

जरत्कारु ऋषि विवाह नही करना चाहते थे । केवल तप और शास्त्रों के स्वाध्याय में ही मग्न रहते ।। और निर्भय होकर यायावर की तरह पूरी पृथ्वी का विचरण करते ।। वे तीर्थो में स्नान करते, और ऐसे कठोर नियम का पालन करते, की माया में रत रहने वाले लोग उसकी कल्पना तक नही कर सकते ।। केवल वायुपान के माध्यम से ही उनका जीवन चलता ।।

एक दिन जरत्कारु ऋषि ने कुछ ऐसा देखा, उन्हे खुद समझ नही आया, की यह स्वपन है या यतार्थ ।। उन्हे अपने कुछ अजीब आकृतियों के दर्शन हुए... ये पितृलोक से आए लोग थे।   ये सभी उल्टे गहरे गड्ढे में गिर रहे थे, केवल एक तिनके का सहारा था, वह भी खिसक रहा था ।।

जरत्कारु ने उन्हे प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा ... मैं आपकी  इस अवस्था से बहुत दुखी हुआ हूं । मेरी तपस्या के कौनसे भाग से आपका उद्धार होगा । तीसरे या आधे भाग से । मैं अपना पुण्य आपके उद्धार हेतु खर्चने को तैयार हूं ।।

पितृलोक से आए उन लोगो ने कहा :- "पुत्र ! हम ब्रह्मचारी है, तपस्या का बल हमारे पास भी है ।। लेकिन हमारे ऊपर आए संकट का निवारण तपस्या से नही हो सकता ।। तपस्या ही हमारे संकट का हल होती, तो हम खुद ही वह हल ढूंढ लेते ।। वंश परंपरा क्षीण होने के कारण हम पुण्यलोको से नीचे गिर रहे है ।। अब हमारे वंश में केवल एक ही व्यक्ति रह गया है, वह भी नहीं के बराबर है ।। हमारे अभाग्य से वह तपस्वी हो गया है, उसका नाम जरत्कारु है ।। वह वेद वेदांगो का विद्वान तो है, संयमी, उदार और व्रतशील भी है , लेकिन उसकी तपस्या के लोभ ने हमे संकट में डाल दिया है ...।। वह अगर विवाह के अपना वंश बढ़ाएं, तो हमे गति मिल जाएं, हम इस गड्ढे में  न गिरे ।। हमारे वंशज का नाम जरत्कारु है ।। वह तपस्वी के रूप में विख्यात है, अगर वह तुम्हे मिले, तो उसे हमारा यह संदेश दे देना ।। "

पितरों की बात सुनकर जरत्कारु को बहुत दुःख हुआ। गला रूंध गया, ओर उसी वाणी में बोले :- आप लोग हमारे पिता और पितामह है ।। मैं ही वह अपराधी हूं, जिसके कारण आप आज इस अवस्था में पहुंचे है ।। मैं आपके कल्याण के लिए विवाह अवश्य करूंगा । भिक्षा के रूप में कन्या का वरण करूंगा ।। लेकिन मेरी एक शर्त है, मैं कन्या से विवाह कर उससे संतान तो उत्पन्न करूंगा, लेकिन उसकी जीविका का भार नहीं उठाऊंगा । मैं पूरी तरह सांसारिक पचड़ों में नही पड़ना चाहता ।। "

पितरों ने ऐसी कन्या को ढूंढना शुरू किया । अब एसो को अपनी बेटी कौन दे दे ? जो आजीविका की जिम्मेदारी लेने तक को तैयार नहीं । कहीं कोई कन्या नही मिली ।।

तत्पश्चात जरत्कारु स्वयं ही समाधि मुद्रा में बैठ गए, और परशक्तियो का आह्वाहन करते हुए गंभीर वाणी में बोलें " मैं पितरो के दुःख को मिटाने की उद्देश्य की प्रेरणा से भिक्षा मांग रहा हूं ।। जो किसी कन्या का नाम जरत्कारु ही हो , वह भिक्षा की तरह ही मुझे दी जाएं, उसके भरण पोषण की जिम्मेदारी मुझपर नही रहे । वासुकी नाग तक यह बात पहुंची, तो उसने झटपट अपनी बहन मनसा का विवाह जरत्कारु ऋषि से कर दिया ।। इन्ही दोनो की से जो पुत्र हुआ, उसका नाम था आस्तीक  ।। जरत्कारु ऋषि का अपने ही पुत्र को महान ऋषि होने का वरदान था।  आस्तीक ही वह कुलदीपक था, जो समस्त नागवंश की रक्षा के लिए प्रगट हुआ था ..

आस्तीक में वह कला थी की अपनी वाणी से किसी को भी मोहित कर लेते थे । वे अपने समस्त नागकुल को वचन देकर जनमेजय के सर्पयज्ञ की और निकले, की " अब चिंता की कोई बात नही है, परमात्मा की कृपा मैं आप सब लोगो की रक्षा करने में सक्षम हूं ।।" 

आस्तीक जनमेजय के सर्पयज्ञ में पहुंचे ।। 

वहां पहुंचकर आस्तीक ने देखा की तेजस्वी सूर्य और अग्नि के समान विद्वानों से वह यज्ञशाला भरी हुई है ।। 

द्वारपालो ने उन्हे रास्ते में ही रोक लिया ...

तब बाहर ही खड़े होकर 

आस्तीक ने अग्निदेव की स्तुति की ।

उनके द्वारा की गई स्तुति से मोहित होकर जनमेजय ने उन्हे यज्ञशाला में बुलाया ।।

आस्तीक का वय भी कुछ अधिक नही था ।। 

उन्हे देखकर जनमेजय को उनपर बड़ा लाड़ आया । 

भले ही यह बालक वय में छोटा हो, लेकिन वेद वेदांतो की बातों में अनुभवी लोगो को भी हतप्रभ कर देता ।।

आस्तीक की सदबातो से प्रभावित होकर 

जनमेजय ने अपने मंत्री सभासदों आदि से कहा :- इन ब्रह्मण देव का वय अवश्य ही कम हो, लेकिन इनकी बातें बड़ो जैसी है ।। मैं इस बालक को वरदान देना चाहता हूं, बताओ आपको क्या राय है??

आस्तीक की वाणी का जादू जनमेजय पर तो चला ही , 

साथ ही यज्ञशाला में बैठे अन्य सभी लोग भी 

आस्तीक की वाणी से इतने सम्मोहित हो गए की तुरंत ही राजा की वरदान देने की बात को स्वीकार कर लिया ।।

राजा ने कहा बस तक्षक नाग इस यज्ञकुंड में आ जाएं , उसके बाद मैं इन्हे वरदान दूंगा ।।

यहां यज्ञशाला में जब सबको पता लगा,

की तक्षक इंद्र की शरण लिए हुए है ।

तब एक विशेष आहुति डाली गई, 

इससे इंद्र भी घबरा गए।  तक्षक को छोड़ भगे।। 

तक्षक भी मारे भय के कांप उठा ।।

अब ब्राह्मणों ने कहा : राजन ! 

आपका कार्य होने ही वाला है, आप इस बालक को वरदान दे दीजिए ।

इतने ही मैं ही तक्षक नाग कुंड में गिरने से केवल कुछ ही दूरी पर था । आस्तीक ने संस्कृत मंत्रों की शक्ति  से कहा " ठहर जा " .. .। तक्षक बीच में ही लटक गया ।।

' राजन ! सर्पों की हत्या बंद कीजिए, 

यही मुझे वरदान होगा ।। आस्तीक ने कहा ।'

कुछ और वरदान मांग लो ब्रह्मण ।। 

आखिर में राजा जनमेजय ने देखा की ब्रह्मण को धनादि माया का लोभ नही है, तो ब्रह्मण को वही वरदान दिया, जो उनकी मनोकामना थी ।। राजा जनमेजय ने आस्तीक को वरदान देते हुए सर्पयज्ञ का समापन कर दिया ।।तक्षक, वासुकी समेत अनेकों नागवंश की रक्षा आस्तिक ने कर ली ।।

आस्तीकने कहा-

सभी सर्प आस्तीक पर बहुत प्रसन्न हुए । इसमें कुछ नाग सिद्ध भी थे । उन्होंने कहा वरदान मांगो पुत्र आस्तिक , आज तुमने समस्त नागवंश की रक्षा की है ।। 

आस्तीक ने हाथ जोड़कर कहा ...

मैं आपलोगोंसे यह वर मागता हूँ कि 

"जो कोई सायंकाल और प्रातःकाल प्रसन्नतापूर्वक इस धर्ममय उपाख्यानका पाठ करे उसे सर्प से कोई भय न हो।"

यह बात सुनकर सभी सर्प बहुत प्रसन्न हुए। 

उन लोगों ने कहा, "प्रियवर! तुम्हारी यह इच्छा पूर्ण हो। हम बड़े प्रेम और नम्रता से तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करते रहेंगे। जो कोई असित, आर्तिमान् और सुनीथ मन्त्रों में से किसी एक का दिन या रात में पाठ कर लेगा, उसे सर्पोंसे कोई भय नहीं होगा। वे मन्त्र क्रमशः ये हैं-

यो जरत्कारुणा जातो जरत्कारौ महायशाः । 

आस्तीकः सर्पसत्रे वः पन्नगान् योऽभ्यरक्षत। 

तं स्मरन्तं महाभागा न मां हिंसितुमर्हथ ॥

(५८।२४)

'जरत्कारु ऋषि से जरत्कारु नामक नागकन्या में आस्तीक नामक यशस्वी ऋषि उत्पन्न हुए। उन्होंने सर्पयज्ञ में तुम सर्पों की रक्षा की थी। महाभाग्यवान् सर्पों मैं उनका स्मरण कर रहा हूँ। तुमलोग मुझे मत डँसो।

सर्पपसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष ।

जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर ॥

(५८।२५)

'हे महाविषधर सर्प ! तुम चले जाओ। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम जाओ। जनमेजयके यज्ञकी समाप्ति मे आस्तीक ने जो कुछ कहा था, उसका स्मरण करो।'

आस्तीकस्य वचः श्रुत्वा यः सर्पों न निवर्तते।

शतधा भिद्यते मूर्ध्नि शिशवृक्षफलं यथा ॥

(५८।२६)

'जो सर्प आस्तीक के वचन की शपथ सुनकर भी नहीं लौटेगा, उसका फन शीशम के फल के समान सैकड़ों टुकड़े हो जायगा।'

धार्मिकशिरोमणि आस्तीक ऋषि ने इस प्रकार सर्प यज्ञ से सर्प का उद्धार किया। शरीर का प्रारब्ध पूरा होने पर पुत्र-पौत्रादि को छोड़कर आस्तीक स्वर्ग चले गये। जो आस्तीक चरित्रका पाठ या श्रवण करता है, उसे सांपो का भय नहीं होता।

१- इस कथा का पहला सार यह है की पितृदोष निवारण के लिए सही उम्र में विवाह कर संतान अवश्य उत्पन्न कर लेनी चाहिए ।। आपने अक्सर देखा होगा, अमूमन लोगो का भाग्य विवाह के बाद ही बदलता है ।। 

२- इस कथा का सर्वोत्तम सार है इस कथा को पढ़ने सुनने वालो को सर्पों का भय नहीं रहता ।।

चित्र मनसा देवी का है ।। आपका देवाधिदेव महादेव शिव के मस्तक से पादुर्भाव होने के कारण  आपका नाम मनसा हुआ ।। आप ही जरत्कारु ऋषि की पत्नी जरत्कारु के रूप में भी विख्यात है ।।

         कलाम द ग्रेट न्यूज़।

सम्पादक -  जय शंकर यादव।